Saturday, September 15, 2012

सफलता के चाहे जितने ही ऊंचे शिखर पर पहुंच जाये

एक मूर्तिकार पिता ने पुत्र को भी अपनी कला सिखायी , जीवन यापन के लिये दोनों हाट में जाकर अपने द्वारा बनायी मूर्तियां बेचते थे .. पिता को मूर्तियों के बदले 50-60 रुपये मिल जाते थे वहीं पुत्र को मात्र 10-20 रुपये ही । पिता हर हाट के बाद पुत्र को सुधार के लिये प्रेरित करता और क्या त्रुटियां उसे दूर करनी है उनका विश्लेषण करता । यही क्रम चलता रहा अब हाट में पिता की मूर्तिया में 50-60 तक और पुत्र की 100-120 तक बिकने लगीं । सुधारने का क्रम पिता ने तब भी बंद नही किया .. पुत्र ने एक दिन झुंझलाकर कहा - पिताजी अब तो दोष निकालना बंद कर दीजिये , अब मेरी मूर्तियां आपसे दुगने दामों पर बिकती हैं । पिता मुस्कुराया और बोला - बेटा सही कह रहे हो ..पर एक बात तुम जानते हो जब मैं तुम्हारी आयु का था तब मुझे भी प्रारंभ में बहुत कम दाम मिलते थे तब मेरे पिता भी मेरे दोषों को सुधारने के लिये बताते थे पर जब मुझ उनसे अधिक दाम मिलने लगा तब मैने उनकी बातें अनसुनी कर दी और मेरी आमदनी 50-60 पर ही रुक गयी .. मैं चाहता हूं कि तुम वह भूल न करो , अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदैव जारी रखो ताकि बहुमूल्य मूर्तियां बनाने वाले कलाकारों की श्रेणीं मे पहुंच जाओ । ...
. " सफलता के चाहे जितने ही ऊंचे शिखर पर पहुंच जाये पर माता , पिता , गुरु , वरिष्ठ जनों की सीखों का निरादर कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि उनका ध्येय हमें शीर्ष पर पहुंचाना होता है न कि हमारा पतन । " :))

Friday, June 8, 2012

जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है

जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है और इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता है, लेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।

इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने स्तर पर समझाया था। हनुमानजी, अंगद, शूर्पणखा, मंदोदरी, मारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया लेकिन उसे समझ में नहीं आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है-


'मोह सकल व्याधिन कर मूला।'


मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है।

यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगा, समाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया। शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था।

इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था, छल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है वह रावण के समान होता है और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।

Monday, January 16, 2012

संदेह होना स्वाभाविक है, पर हमें विश्वास जीतना आना चाहिए

जीने की राह.. जीवन में संदेह और विश्वास का खेल चलता ही रहता है। जब अपने पर ही संदेह होने लगे तो उसका निराकरण आत्मविश्वास से होता है, लेकिन जब दूसरों पर संदेह हो तो या तो हमें उदारता से उन पर विश्वास करना पड़ेगा या सामने वाले को अपनी निष्ठा, ईमानदारी व योग्यता से संदेह का निवारण करना पड़ेगा।

फिर आज के दौर में विश्वास करना भी कठिन काम है। देखा जाता है कि मनुष्य, मनुष्य से बात कर रहा होता है, लेकिन भीतर ही भीतर हर शब्द को संदेह की दृष्टि से तौल ही रहा होता है। भरोसा ही नहीं होता कि आदमी की उपस्थिति, शब्दों और निर्णयों में कितनी सच्चई है।

सुंदरकांड में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत हो रही थी। हनुमानजी सीताजी के सामने अपने आप को रामजी का दूत साबित कर चुके थे, लेकिन फिर भी सीताजी को उनकी क्षमता पर संदेह था। हे सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।। हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान योद्धा हैं।

अत: मेरे हृदय में भारी संदेह है कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे मारोगे? हनुमानजी समझ गए कि संदेह का निवारण अब शब्दों से नहीं होगा। यह सुनकर हनुमानजी ने अपने शरीर को विशालकाय बना लिया। तब उन्होंने बताया कि हम आचरण से ही दूसरों के प्रति विश्वसनीय हो सकते हैं।

तुलसीदासजी ने लिखा - सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।। तब सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया। इसलिए संदेह होना स्वाभाविक है, लेकिन हमें विश्वास जीतना भी आना चाहिए।

Tuesday, January 3, 2012

जो बीत गई सो बात गई

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई।।