Monday, January 16, 2012

संदेह होना स्वाभाविक है, पर हमें विश्वास जीतना आना चाहिए

जीने की राह.. जीवन में संदेह और विश्वास का खेल चलता ही रहता है। जब अपने पर ही संदेह होने लगे तो उसका निराकरण आत्मविश्वास से होता है, लेकिन जब दूसरों पर संदेह हो तो या तो हमें उदारता से उन पर विश्वास करना पड़ेगा या सामने वाले को अपनी निष्ठा, ईमानदारी व योग्यता से संदेह का निवारण करना पड़ेगा।

फिर आज के दौर में विश्वास करना भी कठिन काम है। देखा जाता है कि मनुष्य, मनुष्य से बात कर रहा होता है, लेकिन भीतर ही भीतर हर शब्द को संदेह की दृष्टि से तौल ही रहा होता है। भरोसा ही नहीं होता कि आदमी की उपस्थिति, शब्दों और निर्णयों में कितनी सच्चई है।

सुंदरकांड में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत हो रही थी। हनुमानजी सीताजी के सामने अपने आप को रामजी का दूत साबित कर चुके थे, लेकिन फिर भी सीताजी को उनकी क्षमता पर संदेह था। हे सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।। हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान योद्धा हैं।

अत: मेरे हृदय में भारी संदेह है कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे मारोगे? हनुमानजी समझ गए कि संदेह का निवारण अब शब्दों से नहीं होगा। यह सुनकर हनुमानजी ने अपने शरीर को विशालकाय बना लिया। तब उन्होंने बताया कि हम आचरण से ही दूसरों के प्रति विश्वसनीय हो सकते हैं।

तुलसीदासजी ने लिखा - सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।। तब सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया। इसलिए संदेह होना स्वाभाविक है, लेकिन हमें विश्वास जीतना भी आना चाहिए।