कई बार हम बाहरी सफलताएं हम पर हावी हो जाती हैं। कुछ सफलताएं पाने के बाद ऐसा भी महसूस होता है कि हमने अपना कुछ खो दिया है। सिर्फ भौतिक सफलताओं और संसाधनों पर टिकने वालों के साथ ऐसा ही होता है। हमें अपने भीतर की सफलता, यानी शांति और संतुष्टि के लिए भी सोचना चाहिए। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम हार कर भी संतुष्टि महसूस करते हैं।
भगवान कृष्ण के जीवन को देखिए। श्रेष्ठ अवतार और सर्वशक्तिमान होते हुए भी उन पर रणछोड़ होने का आक्षेप लगा। जो अवतार अपने एक चक्र से पूरी सेना के विनाश की शक्ति रखता हो, वो आखिर क्यों युद्ध का मैदान छोड़कर भागेगा। जरासंघ के सामने भी कृष्ण ने मैदान छोड़ा।
बलराम हर बार कृष्ण पर नाराज होते कि यादव वंश में आजतक कोई कायर नहीं हुआ, जो मैदान छोड़कर भाग जाए। युद्ध के लिए घर से सजधज कर निकले और युद्ध भूमि में आते ही पीठ दिखाकर भाग जाए।
कृष्ण बलराम के इस उलाहना को अक्सर हंस कर टाल जाते थे। वे कहते दाऊ हर बार जरूरी नहीं कि युद्ध जीता ही जाए। युद्ध का परिणाम सिर्फ जीतने या हारने तक सीमित नहीं होता है। इसका परिणाम तो इसके बाद की स्थिति पर निर्भर है। एक युद्ध में हजारों सैनिक मारे जाते हैं। उनसे जुड़े लाखों परिजन असहाय और दु:खी होते हैं। अगर सैनिकों की बलि चढ़ाकर जीत हासिल कर भी ली तो उसका लाभ ही क्या।
मैदान से भागने पर युद्ध टल जाता है, हजारों-लाखों जानें बच जाती हैं। अगर इसके लिए कोई आरोप या आक्षेप लगता है तो यह कोई घाटे का सौदा नही है। मैदान से भागने पर युद्ध टल जाता है, यह मेरे लिए शांति और संतुष्टि दोनों की बात है कि मेरे भागने से हजारों सैनिकों की जानें बच गई।